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भारत में आय-असमानता के कारकः रूपरेखा और निहितार्थ तुलसी जयकुमार |
दुनिया में 2.6 अरब लोगों केपास शौचालय की सुविधा नहीं हैं और उनमें सेलगभग 65 करोड़ लोग भारत में रहतेहैं। स्वच्छता की इस गंभीर समस्या से निजात पाने के लिए भारत सरकार ने ‘महात्मा गांधी स्वच्छ भारत कार्यक्रम’ की शुरुआत की है। इस कार्यक्रम की सफलता तथा विशेष तौर पर इसका टिका रहना संभवत: सामाजिक संरचनात्मक शक्तियों केसाथ जुड़नेपर निर्भर करता है,जो निन्म स्वच्छता स्थिति को संचालित करती है। इस अध्ययन का उद्देश्य भारत में स्वच्छता केसामाजिक संरचनात्मक संदर्भ की खोज करना है। हम स्वच्छता केएक बहुभिन्नरूपी मॉडल का प्रस्ताव देतेहैं तथा राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण– III से लिए गए आंकड़ों केसाथ इसके अनुभवजन्य वैधता का मूल्यांकन करते हैं। हम पाते हैं कि स्वच्छता की स्थिति की बेहतरी में आधुनिकीकरण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह कार्यक्रम सफल हो सके,इसकेलिए मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है,जो आधुनिक सुख सुविधाएंतथा जनस्वास्थ्य शिक्षा को लोगों के दरवाज़े तक लेजाए।
आय वितरण (और इसकी असमानता) एवं वृद्धि और विकास पर होने वाली बौद्धिक बहस बीती सदी में ’नाटकीय बदलाव’ से गुजरी है ( गैलर, 2011)। हमने इस मुद्दे पर शास्त्रीय विचार से लेकर नवशास्त्रीय सुझाव और आधुनिक विचार तक बड़े बदलाव देखे हैं। शास्त्रीय विचार कहता है कि असमानता आर्थिक वृद्धि पर लाभकारी असर डालती है जबकि नवशास्त्रीय सुझाव रहा है कि वृद्धि प्रक्रिया में आय-वितरण की सीमित भूमिका है। वहीं आधुनिक सोच विकास में असमानता के नुकसानदेह प्रभाव पर बल देती है।
पिकेटी की किताब ’कैपिटल इन द ट्वेंटी-फस्ट सेंचुरी’ (पिकेटी-2014) के प्रकाशन के साथ शास्त्रीय अर्थशास्त्रियों के जमाने से चल रही यह बहस पूर्ण विस्तार लेती प्रतीत हो रही है, जो फंक्शनल इनकम डिस्ट्रीब्यूशन की व्याख्या करती है। हालांकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के दौर में व्यक्तिगत और घरेलू स्तर की आय असमानता की अवधारणा हावी रही, लेकिन क्लासिकल अर्थशास्त्र मुख्यतः श्रम और पूंजी के स्तर पर ही आय की असमानता यानी फंक्शनल इनकम डिस्ट्रिब्यूशन पर केंद्रित थी।
सवाल है कि व्यक्तिगत से फंक्शनल इंनकम डिस्ट्रिब्यूशन ( और परिमाणात्मक असमानताएं) तक के बदलाव का यह स्वरूप भारतीय वृद्धि-विकास की बहस को किस तरह प्रभावित करता है? भारत में असमानताओं को किस तरह मापा जाता है और फंक्शनल असमानाताओं के वाहक क्या हैं? और अंततः इस तरह बदले हुए स्वरूप में हमारी नीतिगत उलझनें क्या हैं ? इस आलेख में इन्हीं मुद्दों की चर्चा की गयी है।
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