शिक्षा के वित्तीय प्रबंधन की कम से कम 10-20 वर्ष की योजना को विकसित करने की आवश्यकता है, जो देश में शिक्षा के विकास की दीर्घकालीन योजना के अनुरूप हो, शिक्षा के वित्तीय प्रबंधन के युक्तियुक्त सिद्धांतों पर आधारित हो। समुचित, सक्षम और निष्पक्ष हो। ऐसी योजना शिक्षा व्यवस्था के हर स्तर पर 10-20 वर्ष की अवधि तक निधि के सतत प्रवाह को सुनिश्चित करे। साथ ही जिसमें पुरस्कार एवं दण्ड देने के पर्याप्त प्रावधान भी निहित हों
नवस्वतंत्र भारत की विकास परियोजना की शुरुआत के 18 वर्ष बाद प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 में बनाई गई। इसके ठीक 18 वर्ष बाद दूसरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में बनाई गई, जिसमें 1992 में कुछ संशोधन किया गया। पिछले कुछ वर्षों में, विकास के सभी क्षेत्रों में और विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय ढंग से बदलते परिदृश्य को देखते हुए नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की आवश्यकता लगातार महसूस की गई है। पिछले कुछ दशकों के दौरान नई नीति की अनुपस्थिति में प्रशासकीय आदेशों और गैर समन्वित कदमों से शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन किए गए। नई सरकार ने सत्तारुढ़ होने के तुरंत बाद इस बात का संकेत दिया कि वह नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाएगी। इस संपूर्ण संदर्भ में शिक्षा के वित्तीय प्रबंधन के कुछ मुद्दों का ध्यानपूर्वक परीक्षण करने की आवश्यकता है। अंततः यह बात व्यापक रूप से स्वीकार की जाती है कि निधि की न केवल महत्वपूर्ण भूमिका होती है, बल्कि यह सरकार की उस क्षेत्र के प्रति वरीयता को भी स्पष्ट दर्शाता है।
शिक्षा को व्यापक रूप से महत्वपूर्ण लोकहित और सामाजिक दायित्व माना जाता है। समाज इससे विभिन्न रूपों में लाभान्वित होता है। शिक्षा के लाभ विकास के कई क्षेत्रों तक व्यापक रूप से फैले हुए, दीर्घकालीन और पीढ़ी दर पीढ़ी अनवरत प्रवाहित होते रहते हैं। चूंकि इसका विकास से सीधा संबंध है, और इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण इसी से उत्पन्न अन्य बाह्य लाभ हैं। इसलिए विश्व के अधिकतर विकसित और विकासशील समाजों में शिक्षा के वित्तीय प्रबंधन की सर्वाधिक प्रमुख पद्धति राज्य निधि ही है। ऐतिहासिक साक्ष्य के साथ-साथ समसामयिक अनुभव इस बात की पुष्टि करते हैं। यूनेस्को शिक्षा को लोकहित के स्थान पर सामूहिक हित के रूप में मानने के लिए तर्क देता है।
सरकारी निधि मिलने से शिक्षा का संरक्षण होता है, शिक्षा का लोकहित चरित्र विकसित और पोषित होता है, शिक्षा का अपरिहार्य विस्तार सुनिश्चित होता है और इसमें राष्ट्रीय विकास की आवश्यकताओं को पूरा करने की, सभी नागरिकों के सांझे हितों को प्रोत्साहित करने की व्यापक संभावनाएं हैं। यह आवश्यक है कि राज्य शिक्षा के उदार निधिकरण का दृढ़ संकल्प करे। यह बार-बार दोहराया जाता है कि हमें अपनी सकल घरेलू आय (जीडीपी) का कम से कम 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करना है। जैसा कि 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रस्तावित है। इस लक्ष्य पर फिर से चर्चा करने की आवश्यकता है। तत्काल भविष्य के लिए इसे न्यूनतम लक्ष्य के रूप में देखा जाए। संसाधनों को सामान्य और विशेष करों (उदाहरण स्वरूप शिक्षा उपकर) व सरकार के गैर-कर राजस्वों (केंद्र एवं राज्य स्तर पर) से बाहर लाने की आवश्यकता है। वर्तमान में जीडीपी का लगभग 4 प्रतिशत या इससे कम शिक्षा को आवंटित किया जाता है। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों दोनों को शिक्षा को जीडीपी के 6 प्रतिशत के लक्ष्य तक पहुंचाने के उत्तरदायित्व को गंभीरता से अनुभव करना चाहिए।
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